वर्ण व्यवस्था : अस्पृश्यता की जननी, मानव गरिमा को गहरी ठेस, अमानवीय अत्याचार व शोषण, शिक्षा से वंचित रखने, देश की प्रगति में बाधक होने के साथ साथ विदेशी आक्रांताओ की लूट व भारत में उनके राज के लिए प्रमुखत: जिम्मेदार रही है।

हमारे देश में आज भी राजस्थान पत्रिका के मालिक व मुख्य संपादक गुलाब कोठारी जैसे अपने आप को विद्वान समझने वाले दकियानूसी सोच के लोग वर्ण व्यवस्था को प्रकृतिदत्त व संस्कृति की रक्षा के लिए अहम् समझते हैं। जबकि वास्तविकता यह है कि वर्ण व्यवस्था ने देश में बहुत गंभीर नुकसान किये हैं जिनका खामियााज आज भी भुगतना पड़ रहा है। 

प्रारंभ में कर्म के विभाजन के आधार पर उत्पन्न सकारात्मक व पारगम्य वर्ण व्यवस्था को स्वार्थी व चालाक तबके ने कालान्तर में सोची समझी चाल से विभिन्न वर्णो के बीच अभेद्य दीवार बनाकर उसे अस्पृश्यता की जननी बना दिया। रामायण काल मे शंबूक ऋषि की हत्या, महाभारत काल में एकलव्य एवं कर्ण जैसे योद्धाओं को न केवल शिक्षा प्रदान करने से मना करना अपितु एकलव्य का अंगूठा कटवाना व कर्ण को श्राप देना अपारगम्य वर्ण व्यवस्था के उस दौरान उपस्थिति के साक्ष्य है।  इतिहास से पता चलता है कि वर्ण व्यवस्था ने मानव गरिमा को तार तार किया है, अस्पृश्यता के कारण मानव द्वारा मानव के साथ जानवर से भी खराब व्यवहार किया गया, बड़ी जनसंख्या को शिक्षा से वंचित रखा और यह मानव के साथ घोर अत्यायाचार व शोषण का कारण रही है। राजा जब युद्ध हारते थे तो शूद्रों को दास के रूप में भेंट करने लगे। 

विदेशी आक्रांता जिन्होंने अनेकों बार भारत में लूटपाट व अत्याचार किये, वे क्यों सफल हो पाये? इस पहेली के उत्तर ढूंढने के लिए हमें बहुत पीछे इतिहास में जाना होगा। महाभारत के समय से कर्ण व एकलव्य जैसे महान योद्धाओं को युद्ध में भाग लेने से वर्ण व्यवस्था के आधार पर यह कहते हुए रोक दिया गया कि वे क्षत्रिय वंश के नहीं थे। कालांतर में धार्मिक अंधविश्वास के प्रदूषण (DAP) की आड़ में स्वार्थी तत्व वर्ण व्यवस्था को और गहरा करते चले गये एवं यह धार्मिक व शासकीय मान्यता बनवा दी कि क्षत्रियों के अलावा दूसरे कोई भी युद्ध कला को नहीं सीखेंगे। वर्ण व्यवस्था के मजबूत होने पर क्षत्रियों के अलावा दूसरे किसी को युद्ध कला की शिक्षा लेना व हथियार रखना पाप करार दे दिया गया।

जब विदेशी आक्रांताओ ने भारत पर आक्रमण किया तो उस समय के तत्कालीन राजा महाराजा प्रमुखत: सेना में सैनिकों की सीमित संख्या की वजह से हारते गये। सेना में सीमित सैनिकों की खास वजह थी वर्ण व्यवस्था। क्योंकि वर्ण व्यवस्था के प्रचलन के कारण क्षत्रियों के अलावा दूसरे लोगों को युद्ध में भाग लेना अनुज्ञेय नहीं था। अधिकतर जनसंख्या के जहन में यह बात बिठा दी गई कि क्षत्रियों को छोड़कर दूसरे लोग लड़ने के काबिल नहीं है और उन्हें कभी भी लड़ने का प्रशिक्षण ही नहीं दिया जाता था। 

गहराई से यदि विचार करें तो पता चलेगा कि भारत में वर्ण व्यवस्था की आड़ में एक बड़ी आबादी को शिक्षा से वंचित रखा गया, उन्हें युद्ध कला और कौशल बिलकुल नहीं सिखाये जाते थे। केवल बहुत ही निम्न स्तर के छोटे-छोटे सेवा कार्यों में बड़ी जनसंख्या को उलझाकर रखा जिसकी वजह से विदेशी आक्रांता को भारत में हराया जाना असंभव रहा। वर्ण व्यवस्था की वजह से कुछ लोगों का जीवन एकदम सुखमय व आसान हो गया और बड़ी जनसंख्या उनके असम्मान के कारण हतोत्साहित रहीजिसकी वजह से विज्ञान व अनुसंधान पर कम ध्यान दिया गया और विदेशी आक्रांताओ के पास तकनीकी व आधुनिक हथियार होने की वजह से वे हमेशा जीतते गये। 

आज के समय में वर्ण जैसी दकियानूसी व सिद्ध हानिकारक व्यवस्थाओं को महत्व देने की बात करने वाले लोगों की समझ वास्तव में प्रश्नवाचक है। ऐसे लोग संविधान की मूल भावना समानता के विरोधी है।

उक्तानुसार भारत में विदेशी आक्रांताओ के आगमन के लिए मुख्य रूप से वर्ण व्यवस्था ही जिम्मेदार रही है और जो लोग अभी भी एक ओर तो वर्ण व्यवस्था की वकालत करते हैं एवं दूसरी ओर जो लोग बाहर से आकर यहां बस गये है, उनका विरोध करते है, ऐसे लोगों की समझ के बारे में क्या कहा जाये? ऐसे लोग स्वयं के स्वार्थ में अंधे होकर देश को पीछे धकेलने से आज भी वाज नहीं आ रहे हैं। वे वर्ण के आधार पर अपने आप को समाज की तथाकथित हाइआर्की में शिखर पर एवं बहुत बड़ी जनसंख्या को नीचा दिखाने के प्रयास करते रहते हैं। देश के सभी समझदार नागरिकों को ऐसे दकियानूसी व रूढिवादी लोगों के विचारों का खुले में जोरदार तरीकों से विरोध करने की जरूरत है। 


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